दशकों पहले लीसेस्टर में शुरू हो गया था सांप्रदायिक विभाजन, आप्रवासियों ने माहौल को और जहरीला बनाया

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बर्मिंघम के आंतरिक इलाके स्पार्कब्रुक में पहला पेट्रोल बम श्री प्रगति मंदिर की खिड़कियों से अंदर फेंका गया था. कोवेंट्री में कृष्ण मंदिर का पूरा कालीन आग की भेंट चढ़ गया और विश्व हिंदू परिषद संचालित वेद मंदिर के दरवाजे भी जलकर खाक हो गए. इसी तरह के एक अन्य हमले में वेस्ट ब्रोमविच स्थित श्रीकृष्ण मंदिर—जो ब्रिटेन का सबसे बड़ा मंदिर है—भी आग में जलकर ध्वस्त हो गया. वहीं, डर्बी के एक मंदिर में लगाई गई आग में एक हिंदू पुजारी को किसी तरह भागकर अपनी जान बचानी पड़ी.

इससे पहले, दिसंबर 1993 में हिंदू कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद ढहा दी थी. 1988 में पूरे इंग्लैंड में सलमान रुश्दी के खिलाफ भड़के आंदोलन में प्रमुख चेहरा बनकर उभरे इकबाल सैक्रानी का आरोप है कि उस समय ब्रैडफोर्ड में कुछ हिंदुओं ने मिठाइयां बांटी थीं. मिडलैंड्स और उत्तरी इंग्लैंड में आगजनी और बमबारी की इन घटनाओं को कथित तौर पर इसी के प्रतिशोध में अंजाम दिया गया था. यह 1942 में चर्चों को निशाना बनाकर की गई लुफ्टवाफा बमबारी के बाद धार्मिक स्थलों पर हमले की पहली घटनाएं थीं.

लीसेस्टर में हिंदू-मुस्लिम हिंसा की हालिया घटना, जिसमें खासकर युवा जातीय-गुजराती हिंदू और युवा गुजराती मुसलमान एक-दूसरे के खिलाफ खड़े नजर आए, में पुलिस जांच से सामने आया ब्यौरा दर्शाता है कि अब समय आ गया कि हम इस पर गहराई से आत्ममंथन करें कि मातृभूमि की नफरत की काली छाया विदेशों में इतना गहरा असर क्यों डालती है. इस्लामवाद और हिंदुत्व के बीच नफरती होड़ ने इंग्लैंड में सांप्रदायिक विभाजन की रेखा गहरी भले ही की हो लेकिन यह टकराव नया नहीं है. 30 साल पहले भी, ब्लैकबर्न में हिंदुओं और मुसलमानों ने एक क्रिकेट मैच के बाद एक-दूसरे को पेट्रोल बमों से निशाना बनाया था, ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने अब लीसेस्टर में किया है.

लीसेस्टर में युवाओं के अल्लाह-ओ-अकबर, जय श्री राम के उद्घोष के साथ अपनी धार्मिक पहचान का आक्रामक प्रदर्शन करना इंग्लैंड के दक्षिण एशियाई प्रवासियों के समुदाय के बीच आत्म-अलगाव का नतीजा है, और इसी ने इन्हें जातीय-धार्मिक समूहों में बांट रखा है. ये जातीय विभाजन मातृभूमि में बिगड़े हिंदू-मुस्लिम संबंधों को ही आगे बढ़ा रहा है.

लीसेस्टर में सांप्रदायिकता की दीवारें

50 साल पहले की बात है जब तानाशाह ईदी अमीन ने यह कहते हुए खासकर गुजराती भारतीयों को युगांडा से निष्कासित करने का आदेश दे दिया कि ईश्वर ने सपने में उनसे ऐसा करने को कहा है. तीन महीनों के भीतर करीब 50,000 लोगों को अपना देश छोड़ ब्रिटेन और कनाडा आने को बाध्य होना पड़ा. वहीं, जिन लगभग 8,000 या उससे अधिक भारतीयों को अमीन के कानूनों के तहत सैद्धांतिक तौर पर वहीं पर रहने की इजाजत मिली भी, उन्हें जमीन की खुदाई या सब्जियां आदि उगाने का काम करने भेज दिया गया, या फिर बड़े पैमाने पर करमोज की बंजर भूमि में रहने को बाध्य किया गया.

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