‘Vadh’ FILM REVIEW: बिना नाटकीयता की फिल्म है ‘वध’

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‘Vadh’ FILM REVIEW: कभी-कभी एक नपी तुली स्क्रिप्ट जन्म लेती है. लिखते समय तो शायद इतनी बारीकी से नहीं सोचा जा सकता है और खासकर यदि आप ही फिल्म डायरेक्ट भी कर रहें हो तो ये संभव है कि कहानी का झुकाव एक तरफ हो जाए या शूट करते करते, आप भावनाओं में बह कर स्क्रिप्ट से परे जा कर भी कुछ शूट कर लें. दिसंबर 2022 में कुछ गिने चुने थिएटर्स में और अब फरवरी 2023 में नेटफ्लिक्स पर रिलीज फिल्म “वध” जरूर उन फिल्मों में रखी जायेगी जहां एक भी दृश्य अनावश्यक नहीं है बल्कि लगता है कि थोड़े और सीन होते तो कितना मजा आता. वध एक लाजवाब सिनेमा है. सीधा, सच्चा, सरल, मर्मस्पर्शी और दो टूक बात करने वाला. इस तरह के सिनेमा को जरूर देखना चाहिए क्योंकि इस किस्म के सिनेमा, हिंदी फिल्मों में कम ही देखने को मिलते हैं.

अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ देखते समय ये भावना मन में आई थी कि इस फिल्म को एक वेब सीरीज बना दिया जाए, या फिर इस सीरीज के और भाग बनाए जाएं ताकि ये फिल्म चलती रहे, कहानी आगे बढ़ती रहे, लेकिन फिल्म देखते रहें. ‘वध’ इतनी नपीतुली लिखी और बनाई गई है कि फिल्म खत्म हो जाती है मगर मन नहीं मानता. ऐसा लगता है कि इस किरदार को आगे और कुछ करना चाहिए. दुनिया से बदला लेना चाहिए लेकिन लेखक द्वय जसपाल सिंह संधू और राजीव बरनवाल, दोनों ने अपनी पहली फीचर फिल्म को मेरे अनुमान से कम से कम दर्जन बार लिखा होगा, एडिट किया होगा, फिर लिखा होगा और “फिल्मीपन” के सारे सबूत जब तक मिटा नहीं दिए गए, इस कहानी में बारम्बार सुधार करते रहे और लिखते रहे. क्या कमाल लिखा है, क्या कमाल निर्देशन किया है और क्या कमाल अभिनय है. सिनेमेटोग्राफी और एडिटिंग को अलग से सलाम है क्योंकि इस फिल्म का एक भी दृश्य आंखों को चुभता नहीं है और एक भी दृश्य, लीक से हटा हुआ या जबरदस्ती घुसाया हुआ नहीं है.

संजय मिश्रा और नीना गुप्ता पति पत्नी हैं. ग्वालियर में रहते है. गरीब हैं. बेटे को विदेश पढ़ाने के लिए बैंक से बमुश्किल 10 लाख का लोन और एक उधार देने वाले स्थानीय गुंडे से 15 लाख का कर्जा लिया. बेटा वहां जा कर बस गया, शादी कर ली और अपनी पुरानी जिन्दगी से लगातार पीछा छुड़ाने में बिजी है. माता पिता के स्काइप कॉल्स से वो परेशान रहता है. मिश्रा जी के घर स्थानीय गुंडा वसूली करने के बहाने आता रहता है और उनके घर को एक होटल की तरह इस्तेमाल करता है. क़र्ज में दबा हुस आदमी, गुंडे से हमेशा दबता ही रहता है. ये सिलसिला चलता रहता है जब तक कि ये गुंडा, मिश्रा जी की 12-13 साल की स्टूडेंट और बेटी सामान प्रिय लड़की पर बुरी नजर नहीं डालता. संजय मिश्रा उसका खून कर देते हैं, बॉडी के टुकड़े टुकड़े कर के बोर में भर के फेंक आते हैं और अगले दिन पेट्रोल ले जा कर उसे जला देते हैं. अच्छे आदमी मिश्राजी, उसका अस्थि संचय भी करते हैं क्योंकि गुंडा भी पांडे होता है. पुलिस को शक होता है लेकिन मिश्रा जी अपनी बुद्धि का परिचय देते हुए न सिर्फ इस क़त्ल के इलजाम से बच जाते हैं. बल्कि अपना मकान उस छोटी लड़की के पिता को दे कर कहीं चल देते हैं.

संजय मिश्रा अंगार हैं. हमेशा उन्हें फूहड़ और कॉमेडी भूमिकाओं में देखने की आदत सी हो चली है मगर वे भी 3-4 कॉमेडी फिल्में करने के बाद अचानक ही एक कमाल की सीरियस फिल्म कर देते हैं. ऐसा लगता है कि वे फूहड़ भूमिकाओं के अपने पापों को धो रहे हैं. एक बेहद डरे हुए से, दबे कुचले इंसान की आंख में गुस्सा भी ठीक से नहीं आ पाता। संजय जब आखिर में चतुराई से अपने क़र्ज से मुक्ति पा जाते हैं और लोन देने वाले गुंडे के बॉस को फंसा कर जेल भिजवा देते हैं तो भी उनके चेहरे पर कांइयांपन आ नहीं पाता। ये बात इस बात का भी द्योतक है कि संजय मिश्रा को हम सही इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं मगर क्या करें, वो धोण्डू चिल भी उतने ही कन्विक्शन से बोलते हैं जितने कन्विक्शन से वो वध में पेंचकस से गुंडे का खून करते हैं. संजय मिश्रा की अभिनय क्षमता और देखनी हो तो बंटी और बबली और कंपनी में उनका काम देखिये. उनके साथ हैं नीना गुप्ता. पिछले 2-3 सालों में नीना ने साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है कि हिंदी फिल्म के अधिकांश दर्शक स्टीरियोटाइप के आगे सोचना शुरू करें तो उनके जैसी अभिनेत्री मौजूद है. जिस घर में कभी मांस मच्छी का जिक्र तक नहीं होता, उस घर के ड्राइंग रूम में गुंडा, शराब की बोतल, एक वेश्या और रोस्टेड चिकन लेकर आता है. नीना का चेहरा पढ़ने लायक होता है. नीना गुप्ता अद्भुत अभिनेत्री हैं जबकि उनका रोल छोटा है तब भी वो स्क्रीन को हिला डालती हैं. मानव विज का किरदार ठीक से पनपा नहीं हैं. उसके अंदर का अंतर्द्वंद्व समझ नहीं आता. सौरभ सचदेव तो तूफानी हैं ही. बाकी कलाकारों की भूमिका छोटी है.

लेखक और निर्देशक द्वय इस फिल्म के लिए तारीफ के पात्र हैं. छोटी सी कहानी को करीब पौने दो घंटे के स्क्रीन प्ले में उतरने से लेकर उस स्क्रीनप्ले से दर्शकों को बांध के रखना दुरूह कार्य होता है लेकिन उन्होंने ये कर दिखाया है. फिल्म में कई सीन्स ऐसे हैं जहां लेखकों की और निर्देशकों की पैनी नजर, छोटी छोटी बातों पर ध्यान रखने की आदत पर रश्क किया जा सकता है सिवाय नीना गुप्ता द्वारा कर्पूर गौरम गाने के. वो पूजा के समय पहली लाइन ही गाती रहती हैं, आगे की लाइन्स आती ही नहीं. फिल्म में गालियां भी हैं. इसलिए परिवार के साथ देखने में असुविधा हो सकती है लेकिन इतनी कड़वी दवाई तो ऐसे ही दी जा सकती है. देखिये, तुरंत.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

Tags: Neena Gupta, Sanjay Mishra

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