PFI पर पाबंदी काफी नहीं, सिमी पर बैन से इंडियन मुजाहिदीन बनने का उदाहरण है सामने


2001 में फरवरी की एक देर शाम सादिक इसरार शेख को मुंबई के चीता कैंप क्षेत्र की गलियों में चलने वाले मदीना होटल में चाय का न्योता मिला. बाबरी मस्जिद ढहाए जाने से नाराज अपनी पीढ़ी के कई अन्य युवा मुसलमानों की तरह शेख भी स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया में शामिल हो चुका था.

हालांकि, एयर-कंडीशनर सुधारने वाला यह मैकेनिक कुछ ही महीनों में इस्लाम पर जोशीली तकरीरें सुन-सुनकर ऊब गया और फिर, सिमी से अलग होने के करीब एक साल बाद मदीना में यह बैठक हुई, जो अंतत: पूरे भारत में अपने गहरे निशान छोड़ गई.

9/11 हमले के दो हफ्ते बाद भारत ने सिमी पर पाबंदी की दिशा में कदम बढ़ाया और संगठन पर देशद्रोह के आरोप लगाए. भले सिमी के सैकड़ों गुर्गे गिरफ्तार किए गए और उनसे पूछताछ की गई लेकिन पुलिस बल और खुफिया एजेंसियां सच्चाई की तह तक पहुंचने से कहीं न कहीं चूक गईं.

मदीना होटल में बैठक के बाद शेख ने बांग्लादेश की सीमा पार की और दुबई होकर ढाका से कराची जाने वाली अमीरात की फ्लाइट में सवार हो गया. शेख ने पुलिस को दिए अपने इकबालिया बयान—जिसे भारतीय कानून के तहत मुकदमे के दौरान उसके खिलाफ बतौर साक्ष्य इस्तेमाल नहीं किया जा सकता—में बताया था कि कराची से वह बहावलपुर के पास स्थित लश्कर-ए-तैयबा के शिविर में चला गया. वहां, उसने सिमी के कुछ पूर्व सदस्यों के साथ ट्रेनिंग लेनी शुरू की, जो इंडियन मुजाहिदीन बना रहे थे.

सिमी की कहानी इसी हफ्ते पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) के खिलाफ सख्त कार्रवाई को लेकर आगे की संभावनाओं और खतरों के बारे में समझने में मददगार हो सकती है. सिमी पर पाबंदी ने ऊपरी तौर पर नजर आने वाली इस्लामी राजनीतिक लामबंदी को तो रोक दिया था लेकिन जिहादी समूहों पर नकेल कसने में नाकाम रही. इससे बदतर स्थिति तो यह कि जिहादी नेटवर्क और अधिक सतर्क हो गए, बड़े कायदे से एकदम गोपनीयता के साथ काम करने लगे और भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की नजरों में आने से बचते रहे.

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