1962 में सेना की हार की कई वजहें थीं, लेकिन बड़ी भूमिका मानसिक पराजय की थी

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भारत-चीन के बीच 1962 युद्ध के पहले चरण-20 से 27 अक्टूबर-में सेना की हार की वजह गलत राजनीतिक फैसले और सैन्य नेतृत्व की मौन सहमति थी. राजनीतिक फैसला इस कयास पर आधारित था कि चीन युद्ध शुरू नहीं करेगा. झंडा गाड़ने की आक्रामक होड़ और थागला रिज से चीनियों को खदेड़ने की मूर्खतापूर्ण योजना की वजह से युद्ध की शुरुआत हुई. बिना पर्याप्त रसद के अलग-थलग पड़ीं टुकड़ियां बिना रणनीतिक सुरक्षा के जान लगाकर लड़ीं, लेकिन असली लड़ाई के कुछ ही घंटों में हार गईं.

दूसरे चरण- 14 से 20 नवंबर -में मामूली या कोई राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं था. सेना एक डिवीजन और दो ब्रिगेड-रक्षित सेक्टरों के अपने मैदान में लड़ रही थी. वॉलोंग को छोडक़र मुख्य मोर्चे सड़क मार्ग से जुड़े हुए थे और वायु मार्ग से आपूर्ति बेरोकटोक जारी थी. सभी सेक्टर-7 से 10 दिन की लड़ाई के लिए तैयार थे. फिर भी, असली लड़ाई के दो दिनों के भीतर ही इस दुर्जेय बल ने हथियार डाल दिए.

सेला-दिरांग-बोमडिला में, 4 इन्फैंट्री डिवीजन ‘मानसिक तौर पर हार’ बैठी और 24 घंटे में ही बिना लड़े बिखर गई. चुशूल में, 114 इन्फैंट्री ब्रिगेड पता नहीं क्यों पीछे हट गई जबकि 12 में से सिर्फ दो कंपनियों पर ही दुश्मनों का कब्जा हो पाया था. वॉलोंग में 11 इन्फैंट्री ब्रिगेड 48 घंटे तक एकजुट होकर लड़ी लेकिन फिर उसे भी पीछे हटना पड़ा.

दुश्मन की ताकत, दुर्गम क्षेत्र और कष्टकारी मौसम का गलत अंदाजा और नेतृत्व की मानसिक हार अहम वजह थीं, जिसका सेना की रैंक और फाइल पर हताशाजनक असर हुआ.


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दुर्गम इलाके और मौसम की मार

लद्दाख के ऊंचे पर्वतों और नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) में आवाजाही और अभियान जून से नवंबर तक होता है. युद्ध के दूसरे चरण के लिए चीनी सेना के रसद और जवान नवंबर के मध्य तक ही पहुंच पाए थे, इस तरह प्रभावी सैन्य अभियान के लिए सिर्फ 15 दिन ही बचे थे. दिसंबर में अत्यधिक ठंड और बर्फबारी के कारण आवाजाही लगभग पूरी तरह रुक जाती है. पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के पास सर्दियों में उस समय उपलब्ध बुनियादी ढांचे और मुश्किल संचार व्यवस्था के साथ बड़ी सेना को बनाए रखने का कोई तरीका नहीं था. अपेक्षाकृत बढ़त तो बचाव पक्ष की थी.

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