होमोसेपियन इस दुनिया में कैसे आए

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हम सब कौन हैं और कहांं से आए हैं- यह एक महत्वपूर्ण सवाल है – न सिर्फ डीएनए को समझ औषधि में विकास लाने के लिए, पर अपना अतीत और अस्तित्व जानने के लिए भी. लेकिन क्या हम असल में जान पाए हैं कि मनुष्य प्रजाति कहांं से आई.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

2012 मे जिम होल्ट ने एक किताब लिखी ‘ये दुनिया क्यों है?’ इस किताब में होल्ट पूछते हैं कि यह दुनिया क्यों है. यह प्रश्न बहुत दिलचस्प है- क्योंकि वह यह नहीं पूछ रहे कि यह दुनिया कैसे बनी, पर क्यों बनी. इस प्रश्न का उत्तर होल्ट की नज़रों में तीन विभाग के लोगों के पास हो सकता है- दर्शनशास्त्र, भौतिक विज्ञान और धार्मिक अध्ययन. अपने प्रश्न का उत्तर जानने के लिए होल्ट दुनिया भर के इन तीन क्षेत्रों में काम करने वाले प्रमुख विद्वानों से बातचीत करते हैं और उनके विचार हमारे समक्ष रखते हैं.

मेरे विचार से होल्ट का प्रश्न और उनकी किताब बहुत ही दिलचस्प है. कुछ साल पहले एक दिन काम के बीच मैं अपने एक वरिष्ठ सहकर्मी के साथ चाय पीने गया. बातों-बातों में हम बात करने लगे कि शिक्षा में अनुसंधान किस प्रकार का होना चाहिए. मेरे सहकर्मी का विचार था कि हमें उन प्रश्नों पर काम करना चाहिए जिनका कोई निश्चित रूप से उत्तर हो. उनके विचार में अगर सवाल का उत्तर ही न हो, तो उस पर काम करने का क्या लाभ.

मेरा विचार हमेशा यह रहा है कि शिक्षा के क्षेत्र में हमें ऐसे प्रश्नों को पूछना चाहिए जिन्हें पूछने का कोई साहस न रखता हो. उत्तर तक पहुंचने से ज़्यादा ज़रूरी हमारी उत्तर तक पहुंचने की सोच है. खैर, मुझे दिलचस्प लगा कि बगल के कमरे में सालों साथ बैठते हुए भी हमारी सोच कितनी अलग थी.

होल्ट द्वारा पूछे सवाल का एक छोटा रूप 2022 के नोबेल विजेता स्वांते पाबो ने पूछा- मनुष्य प्रजाति कहांं से आई? जैसे होल्ट ब्रह्मांड की रचना का कारण पूछ रहे हैं, पाबो मनुष्य प्रजाति के बारे में वैसे ही एक सवाल से जूझते रहे हैं. जब 1859 मे चार्ल्स डार्विन कि किताब ‘ओरिजिन ऑफ़ स्पीशीज़’ प्रकाशित हुई, तो प्रजातियों का आना ‘रहस्यों का रहस्य’ माना जाता था. दिलचस्प बात यह है कि 150 साल से अधिक बीत जाने के बाद भी आज तक हम ठीक से नहीं जानते कि नई प्रजातियां कैसे आती हैं. मेरी प्रयोगशाला में हम इसी सवाल पर काम करते हैं- और यीस्ट से प्रयोग कर प्रजातियां बनने का रहस्य समझना चाहते हैं.

पाबो के काम से हमें अपने अतीत के बारे में बहुत कुछ पता चला है.

1829 में पाबो के काम से बहुत पहले यूरोप में एक खोपड़ी पाई गई. बहुत विवाद के बाद यह पाया गया कि यह खोपड़ी एक अलग प्रजाति निएंडरथल (Neanderthal) की है. निएंडरथल अवशेष यूरोप और एशिया में पाए गए और यह आधारित हो गया कि लगभग 40,000 वर्ष पहले निएंडरथल दुनिया से लुप्त हो गए.

ऐसा क्यों हुआ- यह अभी ठीक से बताना कठिन है, पर बहुत से कारण वैज्ञानिकों द्वारा दिए गए हैं. क्योंकि निएंडरथल 40,000 साल पहले लुप्त हो गए तो जाहिर है कि उनके सभी अवशेष बहुत पुराने हैं. इन पुराने अवशेषों से डीएनए निकाल पाना और उसका आज के मनुष्यों (होमोसेपिएन) से तुलना कर पाना बहुत कठिन चुनौती है.

2010 में ‘साइंस’ में प्रकाशित एक लेख में पाबो के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की एक टोली ने ऐसा कर दिखाया. उन्होंने बताया कि अफ्रीका के बाहर के मनुष्यों मे निएंडरथल का डीएनए है- बहुत कम, पर निश्चित रूप में है. उनके नतीजों ने बताया कि यूरोप में रहने वाले आज के लोगों में भी एक से दो प्रतिशत डीएनए निएंडरथल का है.

यह एक बहुत कठिन खोज ही नहीं, मनुष्यों के आज के रूप मे आने की कहानी का एक बहुमूल्य कदम था.

2008 में साइबेरिया में देनिसोवा नाम की एक गुफा में एक अवशेष पाया गया. निरीक्षण के बाद पता चला कि यह एक और नया समूह था – जिसे डेनिसोवांस (Denisovans) नाम दिया गया. पाबो और उनकी टीम ने उसके बाद के सालों में हमें यह बताया कि आज के कुछ समूहों में 6 प्रतिशत डीएनए डेनिसोवांस का है. डेनिसोवांस डीएनए के यह अवशेष आज के पूर्व एशिया में रहने वाले लोगों में पाए जा सकते हैं.

स्वांते पाबो. (फोटो: रॉयटर्स)

हम सब कौन हैं और कहांं से आए हैं – यह एक महत्वपूर्ण सवाल है – न सिर्फ डीएनए को समझ औषधि में विकास लाने के लिए, पर अपना अतीत और अस्तित्व जानने के लिए भी. हज़ारों सदियों पुराना डीएनए अवशेषों से निकाल पाना पाबो के काम से पहले मुमकिन नहीं था. उन्होंने कई दशक इन प्रणालियों को विकसित करने में लगाए जिनसे आज हमें हमारे अतीत के बारे में पता है.

पाबो के काम से यह भी पता चलता है कि अलग और समान होना क्या होता है – जिन्हें हम अलग प्रजाति मानते थे, असल मे उनका डीएनए आज भी हम में है. जो प्रजातियां हमसे अलग हैं (जैसे चिंपैंज़ी), उनका डीएनए हमसे 99 प्रतिशत मिलता है. पाबो की इन सब खोजों के बीच हम कौन हैं और हमारा अपनी और दूसरी प्रजातियों से क्या रिश्ता है- यह प्रश्न स्पष्टता से हमारे सामने आ खड़े होते हैं.

(लेखक आईआईटी बॉम्बे में प्रोफेसर हैं.)



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