पाथेर पांचाली: दम है तो मुझे भूलकर दिखाओ | – News in Hindi – हिंदी न्यूज़, समाचार, लेटेस्ट-ब्रेकिंग न्यूज़ इन हिंदी


क्‍या कारण है कि भारतीय सिनेमा के एक सौ दस साल पूरे होने के बाद, हिंदी में सबसे ज्‍यादा सिनेमा बनने के बाद भी, दक्षिण से सुपर-डुपर हिट फिल्‍में आने के बावजूद भी, ब्रिटिश मैग्‍जीन ‘साइट एंड साउंड’ जब 2022 के जाते साल में ‘ऑल टाइम ग्रेट’ फिल्‍मों की सूची जारी करती है तो उसे 26 अगस्‍त 1955 में रिलीज हुई बांग्‍ला फिल्‍म ‘पाथेर पांचाली’ की याद आती है?

जब ‘भारतीय सिनेमा’ की ‘बेहतर सिनेमा’ की दुनिया में कोई पूछ परख नहीं होती तब, जब इंडियन सिनेमा की झोली ऑस्‍कर से खाली हो तब, जब एक अदद ऑस्‍कर को तरस रहे भारतीय सिनेमा को ऑस्‍कर याद करता है तब उसे सत्‍यजीत रे ही दिखाई देते हैं, जिन्‍हें वो भारत आकर, उनके घर (अस्‍पताल) जाकर उन्‍हें लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड सौंपता है. यानि ‘पाथेर पांचाली’ हो या सत्‍यजीत रे की दूसरी फिल्‍में, दुनिया के लिए भारतीय सिनेमा का पर्याय सिर्फ यही हैं.

गिनती में अरब की संख्‍या के करीब पहुंचती जा रही राशि, एक फिल्‍म के निर्माण में खर्च करने वाला हिंदी और दक्षिण भारतीय सिनेमा उस ‘पाथेर पांचाली’ के करीब भी नहीं फटक पाता जो 1952-55 में महज डेढ़-दो लाख की मामूली राशि में बनी थी. मुद्रास्‍फीति की गणना करके भी देख लीजिए,1958 के दो लाख 2022 में एक करोड़ पचहत्‍तर लाख से कम हैसियत के ही निकलेंगे. यानि लगभग न के बराबर पैसे लगाकर बनाई गई, एक क्षेत्रीय भाषा में बनी फिल्‍म, पूरे एक सौ दस साल के इंडियन सिनेमा पर भारी है.

वैसे जिसने भी कहा है, सच ही कहा है ‘फिल्‍म पैसों से नहीं ज़ुनून से बनती है’. फिल्‍मों के संदर्भ में ये मुहावरा शायद मानेक दा (सत्‍यजीत रे) के फिल्‍मी पागलपन को देखकर ही अस्तित्‍व में आया होगा.

पैसे की बात छोड़ दें और देखें तो पता चलता है कि ये फिल्‍म एक ऐसा शख्‍स बनाता है, जो पेशे से पेंटर है, आर्टिस्‍ट है. लोग ‘ब्‍लैक एंंड व्‍हाइट की दुनिया’ छोड़कर रंगीन दुनिया में दाखिल होना चाहते हैं और यहां सत्‍यजीत राय नाम का ये ‘मूढ’ आदमी ‘रंगों की दुनिया’ त्‍याग कर ‘ब्‍लैक एंंड व्‍हाइट’ को अपनाता है. मजे की बात ये है कि प्रशिक्षित फिल्‍मकार तो छोडि़ए, इसे फिल्‍म बनाने का कोई अनुभव ही नहीं है. फिल्‍म टेक्निक को इसने सिर्फ फिल्‍में देखकर ही सीखा है.

लंदन में अपने छह महीने के प्रवास के दौरान सत्‍यजीत रे ने 99 फिल्‍में देखीं. इनमें विटोरिया डी सिका की नव यथार्थवादी इतालवी फिल्‍म ‘बाइसिकल थीव्‍स’ (1948) भी शामिल थी. 1982 में एक आख्‍यान में रे ने कहते हैं ‘इस फिल्‍म को देखकर बाहर आते समय ही मैंने तय कर लिया था कि मुझे फिल्‍में बनानी हैं.’

सिर्फ पैसा नहीं सत्‍यजीत रे फिल्‍म निर्माण के हर फंडे को नकारते हैं. फिल्‍म निर्माण सिखाने वाली किसी भी क्‍लास को अटेंड कर लें, किसी भी अच्‍छे फिल्‍मकार से पूछ लें, वो यही कहेगा कि ‘पहले स्‍क्रीनप्‍ले लिखो, शूटिंग शेड्यूल बनाओ, चार्ट बनाओ, शॉट डिवीजन करो, यानि भरपूर पेपरवर्क करो तब जाकर कैमरा ऑन करने की सोचना’. हां, शूट पर जाने से पहले वो एक स्‍टोरीबोर्ड जरूर बनाते थे.

पैसे कम हैं तो पेपर वर्क की अहमियत और बढ़ जाती है. लेकिन सत्‍यजीत रे यूं ही तो ‘अजूबों’ में शामिल नहीं थे. महान फिल्‍मकार ऐसे ही सो काल्‍ड अजूबे लोग बनते हैं. ‘पाथेर पांचाली’ जब सेट पर गई तो मानेक दा (सत्‍यजीत रे) के पास विधिवत स्क्रिप्‍ट ही नहीं थी. उनके पास थे चंद नोट्स और कुछ पेंटिंग्‍स.

एक दिलचस्‍प किस्‍सा इस संदर्भ में याद आता है जो बीबीसी को दिए एक इंटरव्‍यू में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के संवाद लेखक जावेद‍ सिद्दीकी ने सुनाया था. वो कहते हैं, ‘मानेक दा’ अपनी स्क्रिप्‍ट के लिए महाजनों (पंसारी) द्वारा उपयोग किए जाने वाले लाल रंग के बही खाते का इस्‍तेमाल किया करते थे. बही खाता जिस पर लाल रंग का कपड़ा चढ़ा रहता था और जिसके पीले रंग के मोटे चिकने कागज हुआ करते थे (हैं), जिस पर ये लोग अपना हिसाब किताब लिखते थे. मानेक दा इसी पर अपनी स्क्रिप्‍ट लिखा करते थे और उसे ‘खाता’ कहकर ही पुकारते थे. सेट पर आकर उनकी पहली आवाज़ यही सुनाई देती थी ‘हमार खाता दाउ’.

बता दें उन्‍होंने हिंदी में एकमात्र फिल्‍म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ ही बनाई. इसके अलावा उन्‍होंने एक घंटे की हिंदी फिल्‍म ‘सद्गति’ भी बनाई थी.

‘कालजयी’ शब्‍द का अर्थ होता है शाश्‍वत, जो काल को जीत चुका हो यानि जो काल की सीमा में बंधा न हो और सदैव प्रासंगिक रहे. ‘कालजयी’ के किसी भी मतलब को ले लो ‘पाथेर पांचाली’ इस शब्‍द के हर अर्थ में फिट बैठती है. ‘पाथेर’ कालजयी न होती तो हम छिंयासठ साल बाद साल के आखिरी महीने में इसे याद ही क्‍यों करते? हमें इसे याद करने का मौका दिया है ब्रिटिश मैग्‍जीन ‘साइट एंड साउंड’ ने. उसने सत्‍यजीत रे की इस पहली फिल्‍म को अब तक की ऑल टाइम ग्रेट फिल्‍मों की सूची में 33 वीं पायदान पर रखा है. साइट एंड साउंड 1932 से लगातार हर दस साल में ग्रेट मूवीज की लिस्‍ट जारी करती है. पहली बार इस लिस्‍ट में किसी भारतीय फिल्‍म को जगह मिली है. सीना फुलाना तो बनता है बॉस.

‘पाथेर पांचाली’ विभूतिभूषण बंधोपाध्‍याय के इसी नाम के उपन्‍यास पर आधारित है. ‘अपराजितो’ और ‘अपुर संसार’, ‘पाथेर’ की कड़ी की अगली फिल्‍में हैं. इन तीनों फिल्‍मों को ‘अपु त्रयी’ (अपु पाथेर का नायक है) के नाम से जाना जाता है.

सत्‍यजीत रे को यूं ही महान फिल्‍मकार नहीं माना जाता. उन्‍हें दुनिया भर में अनेक पुरस्‍कारों से नवाजा गया है. लगातार नवाजा गया है. ऑक्‍सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने उन्‍हें डॉक्‍टर की मानद उपाधि दी. वे चार्ली चैप्लिन के बाद इस सम्‍मान को पाने वाले अनूठे फिल्‍मकार और पहले भारतीय हैं. 1985 में उन्‍हें ‘दादा साहेब फाल्‍के पुरस्‍कार’, 1987 में फ्रांस का प्रतिष्ठत ‘ले ज्‍यों द’ ऑन’ पुरस्‍कार दिया गया. जीवन के अंतिम समय में अकादेमी पुरस्‍कार (ऑस्‍कर) तथा भारत का सर्वोच्‍च सम्‍मान ‘भारत रत्‍न’ मिला.

सत्‍यजीत रे पर आरोप लगाया जाता है कि उनकी फिल्‍में धीमी होती हैं और ‘राजसी घोंघे’ की गति से चलती हैं. रे की तरफ से इसका जवाब महान जापानी फिल्‍मकार और रे के तगड़े प्रशंसकर अकिरा कुरोसोवा की ओर से आता है, ‘इन्‍हें धीमा नहीं कहा जा सकता. ये तो विशाल नदी की तरह शांति से बहती हैं.’ अकीरा तो यहां तक कहते हैं, ‘रे का सिनेमा न देखना इस दुनिया में सूरज या चंद्रमा को न देखने जैसा है’. नाइकर ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के एक दृश्‍य की तुलना शेक्‍सपियर के नाटकों से करते हुए कहते हैं, ‘केवल तीन सौ शब्‍द बोले गए और इतने में ही अद्भुत घटनाएं घट गईं’.

सत्‍यजीत राय पर इटली के नव यथार्थवादी सिनेमा का गहरा असर था. इसलिए उन्‍होंने अभावों और गरीबी से जुड़े विषय (विषयों) को चुना. पाथेर के पात्र की तरह उनकी फिल्‍म भी पैसों की कमी से जूझते हुए ही बनी थी. पैसों की कमी के बावजूद फिल्‍म बनी और कमाल की बनी. ऐसी बनी कि जब देखो तब परदे से बाहर निकलकर, सीना तानकर खड़ी हो जाती है और कहती है – देखो मैं हूं ‘पाथेर पांचाली’- दम है तो मुझे भूलकर दिखाओ.’



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