‘खेती और पशुपालन’ झारखंड के आदिवासी गांवों में कैसे बदल रहा बेहद गरीब परिवारों का जीवन


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मदद में मुश्किलें

इन महिलाओं तक मदद पहुंचाना इतना आसान नहीं था. चूंकि ये घनघोर गरीबी में रही हैं तो किसी पर भी भरोसा करना इनके लिए मुश्किल था. अजनबी लोग जब इनकी चौखट पर आए तो इन्होंने छले जाने के डर से उन्हें भगा दिया.

झारखंड में कार्यक्रम के प्रमुख और पिछले चार वर्षों से संस्थान के साथ काम कर रहे 31 वर्षीय श्रीकांत कुमार रौता बताते हैं कि पहले इन लोगों के साथ इतनी बार धोखा हो चुका होता है कि किसी नए व्यक्ति पर विश्वास करना इनके लिए मुश्किल होता है.

श्रीकांत ने कहा, ‘वे सोचते हैं कि हम उन्हें पैसे देंगे और फिर उनसे काम करवाएंगे. शुरू में, वे हमें दूर भेज देते थे, लेकिन धीरे-धीरे हमने उनका विश्वास जीत लिया और उनके साथ काम करना शुरू कर दिया.’

नज नाम की यह व्यवस्था स्व-रोजगार के अवसर पैदा करके अति गरीबों की मदद करने के लिए सरकारों, बाजारों और नागरिक समाज के साथ काम करती है. संगठन परिवारों को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कुछ पैसे देता है- उपभोग सहायता अनुदान के रूप में 3,600 रुपये और महिलाओं द्वारा नियोजित सब्जी की खेती, पशुधन पालन या छोटे व्यवसाय जैसी किसी भी स्थायी आजीविका गतिविधियों के लिए दो किस्तों में आजीविका सहायता अनुदान के रूप में 17,500 रुपये है.

लेकिन यह सिर्फ एक अस्थायी समाधान है. मुख्य लक्ष्य उन्हें खेती करना और पशुपालन करना सिखाना है.

श्रीकांत बताते हैं कि इसके लिए लगातार उनके साथ काम करने की जरूरत होती है, तभी जाकर उनका विश्वास जीता जाता है. जिन लोगों को संस्थान ग्राउंड पर भेजता है वह उनके परिवार का हिस्सा हो जाता है. वो लगातार इन परिवारों के संपर्क में रहता है और उन्हें सिखाता है कि वे किस तरह खुद काम करके आत्मनिर्भर हो सकते हैं.

पीले रंग की साड़ी पहने सविता देवी कहती हैं, ‘पहले तो हमें लगा कि वे हमें धोखा देने आए हैं. इसलिए हमने उन्हें विदा कर दिया लेकिन वे वापस आते रहे और हम बात करने लगे.’ सविता देवी के पास आज 10 बकरियों का झुंड है और वह आलू, टमाटर और मिर्च बेचकर सालाना 30,000 रुपये कमाती हैं.

सविता देवी अन्य महिलाओं के साथ बैठक में अपने एक रिश्तेदार से फोन पर बात कर रही हैं | फोटो नूतन शर्मा | दिप्रिंट

कुछ महिलाओं ने पट्टे पर जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा ले लिया. जबकि कुछ के पास जमीन तो थी लेकिन फसल उगाना नहीं जानते थे.. कई लोग अपने घर के पास की जमीन में ही सब्जियां उगा रहे हैं, जो अब किचन गार्डन बन गए हैं.

एक समय था जब गुड़िया दीदी के पति नज संस्था के सदस्यों को भगा देते थे. 30 साल की गुड़िया नज के एक वॉलिंटियर सुजीत की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं, ‘अब आप उसके साथ तस्वीरें क्लिक कर रहे हैं, पहले तो भगा देते थे.’

30 वर्षीय गुड़िया अपने ‘किचन गार्डन’ में, अपने नए स्मार्टफोन पर एक दोस्त से बात कर रही है | फोटो नूतन शर्मा | दिप्रिंट

झारखंड में बदल रहा है जीवन

झारखंड भारत का दूसरा सबसे गरीब राज्य है, नीति आयोग के अनुसार, राज्य की 42.16 प्रतिशत आबादी अत्यधिक गरीबी में जी रही है. भूमि या पशुधन की कमी समस्या को और बढ़ा देती है और अधिकांश परिवारों के लिए दिन में दो वक्त का भोजन जुटा पाना एक चुनौती है. चुनौती के बारे में बताते हुए, द नज इंस्टीट्यूट ने अपनी वेबसाइट पर कहा है: झारखंड में परिवार ‘सामाजिक रूप से बहिष्कृत हैं, आर्थिक रूप से बहिष्कृत हैं, अनुमानित श्रम और आय तक उनकी पहुंच नहीं है, न ही वे स्वास्थ्य, सरकार या सामुदायिक सहायता कार्यक्रमों तक पहुंच बनाने में सक्षम हैं.’

झारखंड के दूर-दराज इलाकों में रहने वाले आदिवासियों के न तो सपने होते हैं और न ही बड़ी-बड़ी इच्छाएं. वे क्या चाहते हैं, इस सवाल के जवाब में बस वे चुप रह जाते हैं.

लेकिन अब थोड़ा-थोड़ा बदलाव दिखने लगा है.

लातेहार जिले के पास दामोदर गांव की परिहाया टोले में रहने वाली बबिता देवी चाहती हैं कि उनका बेटा पढ़ाई करे. एक हफ्ते पहले ही उन्होंने एक बेटे को जन्म दिया है. अब उनके कुल 6 बच्चे हैं.

बबीता देवी अपने तीन दिन के बच्चे के साथ | फोटो नूतन शर्मा | दिप्रिंट

वो बताती हैं, इस साल मैंने सब्जियां बेचकर 18,430 रुपये कमाए. जब से बबीता और उनके पति ने पशुपालन शुरू किया और पट्टे की जमीन पर सब्जियां उगाना शुरू किया है, तब से उन्हें भट्ठे पर दैनिक काम नहीं करना पड़ता है, जहां वे ईंटें बनाते हैं. बबीता का परिवार बनारस और त्रिपुरा जैसे राज्यों में पलायन करके 6-6 महीने मजदूरी करता था. वो कहती हैं, ‘भट्ठे के पास जाने का चक्र टूट गया है. अब हम अपने बच्चों को शिक्षित करने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं.’

उनके समाज का ताना-बाना भी बदल रहा है. ग्रामीणों का कहना है कि घरेलू हिंसा के मामले कम हुए हैं और महिलाओं में अब आत्मविश्वास आया है. वे स्थानीय अधिकारियों से निपटना भी सीख रही हैं.


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आत्मविश्वास भी बढ़ा

लातेहार जिले के पास दामोदर गांव की परिहाया बस्ती की निवासी 30 वर्षीय आरती ने कहा- ‘हमें पानी की समस्या हो रही थी, इसलिए हम बीडीओ (ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिसर) के पास गए जिसके बाद अब हमारे टोले में पानी की टंकी लगी है. यह पर्याप्त नहीं है, लेकिन यह मददगार है.’

राज्य के ग्रामीण विकास विभाग में झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी के प्रमुख अधिकारी सुवकांत नायक ने कहा, ‘समुदाय में पर्याप्त बदलाव का अनुभव करने के बाद हमें अति-गरीब परिवारों को लक्षित करने के लिए अधिक समर्पित हस्तक्षेपों को आगे बढ़ाने की प्रेरणा मिली. अब, हम द नज इंस्टीट्यूट के साथ साझेदारी में UPAJ (अल्ट्रा-पुअर ग्रेजुएशन अप्रोच इन झारखंड) नामक एक कार्यक्रम को भी लागू कर रहे हैं.’

अधिकारी ने कहा: ‘यह कार्यक्रम झारखंड में 4,000 अति-गरीब परिवारों को लक्षित करता है, जिन्हें हम 36 महीने तक उपभोग समर्थन अनुदान, आजीविका सहायता अनुदान, पात्रता तक पहुंच की सुविधा और साप्ताहिक कोचिंग के साथ समर्थन देंगे. The/Nudge से हमें जो तकनीकी और प्रबंधकीय समर्थन मिल रहा है वह सराहनीय है. हम राज्य भर में इस दृष्टिकोण को बढ़ाने की उम्मीद करते हैं. हम झारखंड में अत्यधिक गरीबी से बाहर आने के लिए 1,00,000 अति गरीब परिवारों को कवर करने की योजना बना रहे हैं.’

द नज इंस्टीट्यूट के सीईओ अतुल सतीजा चाहते हैं कि झारखंड सरकार राज्य ग्रामीण आजीविका मिशनों को पूरे देश में अति गरीबों को लक्षित करने वाले इस कार्यक्रम को लागू करने में सक्षम बनाए.

झारखंड में सफलता से प्रेरित होकर, द नज इंस्टीट्यूट अब राजस्थान में कार्यक्रम शुरू करने की योजना बना रहा है.

श्रीकांत ने कहा, ‘वहां स्थिति अलग होगी, इसलिए हम वहां एक अलग दृष्टिकोण के साथ जा रहे हैं.’

संपादन: इन्द्रजीत

(इस फीचर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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