अब देश की जनता को ही सिकुड़ते लोकतंत्र के विरुद्ध खड़ा होना होगा


मोदी सरकार एक ऐसा राज्य स्थापित करने की कोशिश में है जहां जनता सरकार से जवाबदेही न मांगे. नागरिकों के कर्तव्य की सोच को इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल के दौरान संविधान में जोड़ा था. मोदी सरकार बिना आपातकाल की औपचारिक घोषणा के ही अधिकारहीन कर्तव्यपालक जनता गढ़ रही है.

(फोटो: पीटीआई)

पिछले कुछ महीने से झारखंड में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नेतृत्व में चल रहे सरकार को लगातार भाजपा व केंद्र द्वारा गिराने की कोशिशें हो रही हैं. एक तरफ राज्यपाल माइनिंग लीज मामले में हेमंत सोरेन की विधायकी रद्द करने के चुनाव आयोग के कथित अनुशंसा पर चुप्पी साध अस्थिरता का माहौल बनाए हुए हैं. दूसरी ओर, भाजपा द्वारा सरकार भंग करने की मांग तेज़ हो गई और साथ-ही-साथ सत्ता पक्ष के विधायकों की खरीद-बिक्री की हवा भी तेज़ हो गई.

हालांकि, हेमंत सोरेन विशेष विधान सभा सत्र में विश्वासमत हासिल कर भाजपा को उनके ही खेल में मात देने में सफल रहे, लेकिन खरीद-बिक्री के इस खेल में वोटर तो महज़ मूकदर्शक बनते जा रहे हैं.

भाजपा और केंद्र सरकार के इस ‘ऑपरेशन कमल’ का अन्य कई राज्य जैसे महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, गोवा व कई पूर्वोत्तर राज्य भी गवाह बन चुके हैं. खरीद-बिक्री व राज्यपाल के पद के दुरुपयोग के अलावा केंद्र सरकार द्वारा विपक्षी नेताओं और दलों को भ्रष्टाचार के नाम पर ईडी और सीबीआई जैसी सरकारी संस्थाओं के माध्यम से घेरा जा रहा है.

अगर मामला केवल भ्रष्टाचार पकड़ने का होता, तो भाजपा के अनेक नेताओं पर भी कार्रवाई होती. यह भी मज़ेदार बात है कि जैसे ही आरोपी विपक्षी नेता भाजपा से जुड़ जाते हैं या सरकार गिराने में सहयोग करते हैं, वैसे ही उनपर ईडी और सीबीआई का साया ख़त्म हो जाता है. अब भाजपा तो ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ के नारे के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों के ख़ात्मे की भी बात कर रही है.

केंद्र द्वारा विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को गिराने का इतिहास तो लंबा है, लेकिन 2014 में भाजपा नेतृत्व वाली केंद्र सरकार बनने के बाद से देश के बहु-दलीय संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक-पार्टी राज स्थापित करने की प्रक्रिया झलकती है. भारतीय लोकतंत्र की मूल अवधारणा ही बदलते हुए दिख रही है.

हालांकि इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था हमेशा से ही सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक रूप से ज्यादा मजबूत लोगों व समुदायों के पक्ष में झुकी रही है. लेकिन अगर 2014 से अब तक के सफ़र पर गौर किया जाए, तो लोकतंत्र का व्यापक रूप से सिमटना स्पष्ट है.

हिंदू राष्ट्र की ओर

आज़ाद हिंदुस्तान की परिकल्पना एक धर्मंनिरपेक्ष बहु-धार्मिक व बहु-पंथिक देश की करी गई थी, जो बराबरी, न्याय और बंधुत्व के मूल्यों पर आधारित होगा. लेकिन आरएसएस की दशकों पुराने उद्देश्य के अनुरूप भाजपा हिंदू राष्ट्र की स्थापना में लगी हुई है. ऐसा राष्ट्र जहां हिंदू प्रथम दर्जे के नागरिक होंगे और मुसलमान समेत अन्य धर्म के लोग दूसरे दर्जे के.

भाजपा शासित केंद्र व राज्य सरकारें भी इस दिशा में अपनी भूमिका निष्ठा के साथ निभा रही  हैं. चाहे राम मंदिर की स्थापना पूजा में पूर्ण भागीदारी हो या नए संसद भवन की स्थापना एवं अशोक स्तंभ के अनावरण में हिंदू रीति-रिवाज़ से पूजा करके हो, प्रधानमंत्री मोदी ने केंद्र सरकार के धार्मिक रंग को तो स्पष्ट कर दिया है.

नागरिकता कानून में संशोधन कर धर्म-आधारित नागरिकता की अवधारणा भी इसका एक उदहारण है. साथ ही, सरकारी पाठ्यक्रमों में हिंदुत्व आधारित व्यापक बदलाव की खबर कई भाजपा-शासित राज्यों से आ रही है. कहीं हिंदू धार्मिक ग्रंथ को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जा रहा है तो कहीं इतिहास में फेरबदल कर हिंदुत्व नेताओं को प्रमुखता दी जा रही है तो कहीं हिंदुत्व की बातों को पाठ्यक्रम में जोड़ा जा रहा है.

मुसलमानों पर विभिन्न रूप से सीधा दमन व हिंसा बढ़ने के भी कई उदहारण है. सीएए-एनआरसी के विरुद्ध आंदोलन से भाग लिए कई  मुसलमानों पर मामले दर्ज करना और दिल्ली में मुसलमानों को सांप्रदायिक हिंसा का शिकार बनाना भी स्थिति को बयान करते हैं. भाजपा शासित राज्यों में गौ-रक्षा के नाम पर हिंसा करने वालों पर न के बराबर कार्रवाई होती है.

भाजपा व आरएसएस से जुड़े विभिन्न संगठन लगातार मुसलमानों के विरुद्ध सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक द्वेष फैला रहे है. अनगिनत उदहारण हैं, जैसे- 1) मुसलमानों को सार्वजानिक स्थलों पर नमाज़ न पढ़ने देना, 2) हिंदू उत्सवों में मुसलमानों के विरुद्ध सांप्रदायिक माहौल बनाना, 3) बिलकिस बानो के बलात्कारियों की सजा माफ कर धूमधाम से स्वागत करना, 4) मुसलमानों का लिंचिंग करने वालों को धूमधाम से स्वागत करना, 5) विपक्षी राज्यों में गैर-मुसलमानों के बीच इस्लामिक राज स्थापित होने का डर पैदा करना आदि.

यह महज़ संयोग नहीं है कि भाजपा मुसलमानों को चुनाव में न के बराबर टिकट देती है और संसद में लगातार मुसलमान सांसदों की संख्या कम हो रही है.

हिंसा व दूसरे दर्जे का सामाजिक-राजनीतिक व्यवहार सिर्फ मुसलमानों तक सीमित नहीं है बल्कि अन्य अल्पसंख्यक धर्म व वंचित समुदाय जैसे ईसाइयों, दलित व आदिवासियों के विरुद्ध भी दिखता है. लेकिन विभिन्न जातियों व समुदायों को हिंदुत्व आधारित राष्ट्रवाद के खेमे में खींचने के लिए भाजपा मुख्यतः मुसलमानों को हिंदुओं और देश के दुश्मन के हिसाब से स्थापित करने में लगी है.

हालांकि हिंदुत्व वर्ण व्यवस्था समाप्ति की बात तो करता ही नहीं है बल्कि बढ़ते हिंदुत्व के साथ सवर्ण जातियों का वर्चस्व भी बढ़ते दिख रहा है. लेकिन सोचने का विषय है कि इसके बावजूद अनेक दलित और पिछड़ी जातियां अपनी हिंदू पहचान को प्राथमिकता देकर हिंदुत्व खेमे में जुड़ रही हैं.

जनता कर्तव्य पर ध्यान दे, सरकार से सवाल न करें

भारतीय संविधान का एक स्तंभ है नागरिकों का मौलिक अधिकार,  जिनके प्रति सरकार व शासन प्रणाली बाध्य हैं. हालांकि आज तक कोई भी केंद्र सरकार मौलिक अधिकारों के प्रति पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध नहीं रही है, लेकिन लंबे संघर्षों के कारण पिछले कई दशको में जन अधिकारों का विस्तार भी हुआ है.

पर मोदी सरकार एक ऐसा राज्य स्थापित करने की कोशिश में है जहां जनता सरकार से जवाबदेही न मांगे और बल्कि अपने कर्तव्यों के पालन पर ध्यान दें. नागरिकों के कर्तव्य की सोच को इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल के दौरान संविधान में जोड़ा था. मोदी सरकार बिना आपातकाल की औपचारिक घोषणा के ही अधिकारहीन कर्तव्यपालक जनता गढ़ रही है.

चाहे नोटबंदी कर लोगों को भूखे पेट लाइन में खड़ा कर देना हो या कोविड के दौरान थाली बजवाना हो या लगातार कर्तव्य की बात कर अधिकार के अवधारणा को समाप्त करना हो, प्रधानमंत्री मोदी की मंशा स्पष्ट है.

वहीं, दूसरी ओर सरकार जवाबदेही की प्रणालियों को लगातार कमज़ोर कर रही है और खुद को पारदर्शिता से परे बना रही है. कुछ चंद उदाहरण – 1) सूचना के अधिकार कानून को कमज़ोर करना, 2) पीएम केयर्स फंड को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखना, 3) चुनावी बॉन्ड का इस्तेमाल कर पार्टी को मिलने वाले चंदा को अदृश्य रखना, 4) प्रधानमंत्री द्वारा आज तक एक भी प्रेस वार्ता न करना, 5) संसद में सवाल-जवाब की प्रक्रिया को लगातार कम करते जाना आदि.

साथ ही, सरकार की ऐसी नीति व हिंदुत्व राजनीति पर सवाल करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं पर देशद्रोह समेत विभिन्न बेबुनियाद आरोप लगाकर कानूनी कार्रवाई की जा रही है. भीमा-कोरेगांव मामले और हाल में तीस्ता सीतलवाड़ व मोहम्मद ज़ुबैर पर लगाए गए मामले इसका उम्दा उदहारण हैं.

बढ़ता निजीकरण और गैर-बराबरी

पिछले कई दशकों से (खासकर के 1990 के उदारवाद के बाद से) देश में निजीकरण को बढ़ावा मिल रहा है और किसान-मज़दूरों की तुलना में पूंजीवादियों के पक्ष में सरकारें खड़ी दिखती है. 2014 से इस प्रक्रिया ने विशेष गति पकड़ ली.

केंद्र द्वारा सरकारी संपत्तियों, इकाइयों और कंपनियों – बैंक, नवरत्न कंपनी, रेलवे, एअरपोर्ट, कोयला खदान आदि – को एक-एक कर के निजी हाथों में बेचा जा रहा है. दूसरी ओर, हाल के सालों में केंद्र द्वारा अब तक का सबसे ज्यादा कॉरपोरेट ऋण माफ़ किया गया है. कंपनियों के पक्ष में किसानों एवं मज़दूरों के अधिकारों को कमज़ोर करने की कोशिशें भी लगातार जारी हैं.

सरकार के इस रवैये का सबसे आला उदहारण है अडानी समूह, जिसका लगातार वृद्धि नरेंद्र मोदी के राजनीतिक सफ़र के साथ कदम-से-कदम मिलाकर हो रहा है. यह महज़ संयोग नहीं है कि आज गौतम अडानी देश के बैंकों से अरबों का लोन लेकर एवं विभिन्न सरकारी कंपनियों व संपत्तियों को खरीद कर दुनिया के तीसरे सबसे अमीर व्यक्ति  बन गए हैं.

वहीं, पिछले 8 सालों में गरीबों के पक्ष में पुनर्वितरण आर्थिक नीति न के बराबर दिखी है. यह आश्चर्य की बात नहीं है कि देश में आर्थिक गैर-बराबरी लगातार बढ़ रही है.

लोकतंत्र को पुनः बहाल करने की ओर

आज देश जिस मोड़ पर खड़ा है, इस रास्ते की शुरुआत कई मायनों में कांग्रेस पार्टी द्वारा ही की गई थी. लेकिन भाजपा, संघ के विभिन्न संगठनों और पूर्ण बहुमत की मदद से, इस रास्ते पर निरंकुश गति से आगे बढ़ रही है.

यह भी सोचने का विषय है कि इस दिशा में भाजपा के लिए जन समर्थन भी बढ़ रहा है. द्वेष फैलाने और लोगों को सच्चाई से दूर रखने के लिए सोशल मीडिया और मुख्यधारा मीडिया का भी पूर्ण इस्तेमाल किया जा रहा है.

ऐसी परिस्थिति में सबसे पहले विपक्षी दलों को भाजपा की नीतियों और राजनीति के विपरीत अपने मंतव्य को स्पष्ट करना होगा. भाजपा वैसे राज्य-स्तरीय चुनावों में थोड़ी कमज़ोर दिखती है जहां चुनाव स्थानीय मुद्दों और क्षेत्रीय पहचान पर होते हैं. विपक्षी दलों को इससे सीख लेते हुए 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले जन मुद्दों व गैर-धार्मिक राष्ट्रीय पहचान पर आधारित राजनीतिक पक्ष लोगों के सामने पेश करना होगा.

साथ ही, दलों को अपनी सीमित राजनीतिक विचारधारा को व्यापक करना होगा. वामपंथी दलों को वर्ग संघर्ष के साथ जातीय मुद्दों को जोड़ने की ज़रूरत है. वहीं, क्षेत्रीय दलों को सीमित जन-आधार के साथ-साथ अन्य मेहनतकश वर्गों तक भी पहुंचने की ज़रूरत है.

कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा पार्टी को पुनः जीवित करने में मदद कर सकती है लेकिन कांग्रेस को बिना नेतृत्व की अपेक्षा किए अपना स्थान अन्य विपक्षी-दलों की सामूहिक राजनीति के बीच खोजना पड़ेगा.

सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हम सबको, इस देश की जनता को, इस सिकुड़ते लोकतंत्र के विरुद्ध और लोकतंत्र को पुनः बहाल करने के पक्ष में खड़ा होना होगा.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)





Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *