भाजपा से ज़्यादा हिंदुत्ववादी होकर क्या पाएगी आम आदमी पार्टी


कई जानकार कह रहे हैं कि अरविंद केजरीवाल के नोट-राग ने ज़रूरी मुद्दों व जवाबदेहियों से देशवासियों का ध्यान भटकाकर लाभ उठाने में भाजपा की बड़ी मदद की है. ये जानकार सही सिद्ध हुए तो केजरीवाल की पार्टी की हालत ‘माया मिली न राम’ वाली भी हो सकती है.

सोमनाथ मंदिर में अरविंद केजरीवाल. (फोटो साभार: फेसबुक/@AAPkaArvind)

यूं तो अपने देश में चुनावों में धार्मिक व सांप्रदायिक मुद्दों के इस्तेमाल का इतिहास इतना पुराना है कि आजादी के फौरन बाद 1948 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के पहले उपचुनाव भी इससे नहीं ही बच पाए थे. वे उपचुनाव तब कराए गए थे, जब भारतीय समाजवाद के पितामह कहलाने वाले आचार्य नरेंद्रदेव ने कांग्रेस के विपक्ष के निर्माण की सदिच्छा से तत्कालीन समाजवादी पार्टी को तो उससे अलग किया ही, नैतिकता के आधार पर साथियों के साथ विधानसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और उपचुनाव में कांग्रेस के खिलाफ मैदान में उतरे.

तब कांग्रेस आचार्य को वैचारिक टक्कर देने के बजाय धर्मजाल में फंसाने की राह पर चली और उसके कट्टर हिंदुत्ववादी प्रत्याशी बाबा राघवदास ने अनीश्वरवादी आचार्य नरेंद्रदेव के जीतने से अयोध्या में आमतौर पर ऊंची फहराती रहने वाली धर्मध्वजा के नीची हो जाने का प्रचार कर एक हजार दो सौ वोटों से बाजी मार ली.

कहते हैं कि उनके इस तरह बाजी मार लेने का ही फल था कि अयोध्या में हिंदुत्ववादियों के मंसूबे इतने बढ़ गए कि उन्होंने 22-23 दिसम्बर, 1949 की रात बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रखकर एक ऐसा विवाद पैदा कर डाला, जो आगे चलकर भीषण नासूर में बदल गया और जब तक सर्वोच्च न्यायालय उसे उसकी अंतिम परिणति तक पहुंचाता, हम देश के तौर पर उसकी बहुत बड़ी कीमत चुका चुके थे.

सबसे बड़ी कीमत यह कि इस बीच हिंदुत्ववादियों ने न सिर्फ देश की सत्ता पर कब्जा कर लिया, बल्कि उसके संविधान के धर्मनिरपेक्षता जैसे पवित्र मूल्य की धज्जियां उड़ा डाली थीं. हम जानते हैं कि उनके द्वारा ये धज्जियां अभी भी उड़ाई ही जा रही हैं.

आखिर क्योंकर हुआ ऐसा? पीछे मुड़कर देखें तो हम पाते हैं कि 1976 में श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रीकाल में बयालीसवें संविधान संशोधन की मार्फत धर्मनिरपेक्षता को संविधान की प्रस्तावना में शामिल कराने वाली कांग्रेस उनकी क्रूर हत्या के बाद के कुछ ही वर्षों में बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रखे जाने के बाद उसमें बंद किए गए ताले खोलने और ऐन उसकी ही जगह राम मंदिर निर्माण की मांग को लेकर हिंदुत्ववादियों द्वारा आसमान सिर पर उठा लेने से जन्मे अंदेशों से इतनी त्रस्त हो गई कि उसे उनसे उनका हिंदुत्व का कार्ड छीन लेने में ही भलाई दिखने लगी.

फिर क्या था, 1984 के लोकसभा चुनाव में सहानुभूुति की लहर पर सवार होकर रिकॉर्ड बहुमत से चुनकर आए प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पहले एक फरवरी, 1986 को बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाने का मार्ग प्रशस्त कराया, फिर नौ नवंबर , 1989 को राम मंदिर का शिलान्यास भी करा दिया.

उन्होंने सोचा था कि इससे हिंदुत्व का कार्ड उनकी पार्टी के हाथ आ जाएगा, जिसके बूते वह पहले की ही तरह चुनाव दर चुनाव वैतरणी पार कर लिया करेगी. लेकिन हुआ इसका एकदम उल्टा. 1989 में उनकी सरकार तो वापस नहीं ही आई, उनकी पार्टी उसके बाद के किसी भी लोकसभा चुनाव में अपने दम पर बहुमत नहीं पा सकी.

हालांकि इसके लिए उसने धर्मनिरपेक्षता को चुनाव मैदान से गैरहाजिर करने और मुकाबले को हिंदुत्व के ही दो सॉफ्ट एंड हार्ड (नरम और कठोर) रूपों के बीच सीमित करने की कोशिश की. चुनावी आंकड़े गवाह हैं, जब-जब उसने ऐसा करने की कोशिश में सच्ची धर्मनिरपेक्षता का पल्ला छोड़ा, हार्ड हिंदुत्व जीता और सॉफ्ट हिंदुत्व ने उसकी पहले से ज्यादा दुर्गति कराई.

दूसरे शब्दों में कहें, तो सॉफ्ट हिंदुत्व की पैरोकारी में एड़ी-चोटी एक करके भी कांग्रेस हिंदुत्वादियों से, जिनकी सबसे बड़ी अलमबरदार भाजपा है, उनका हिंदुत्व कार्ड नहीं छीन पाई. अब आम आदमी पार्टी वही कार्ड छीनने की उतावली दिखा रही है तो सवाल है कि क्या वह ऐसा करने में सफल हो पाएगी?

उसके सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को यह सुझाव देकर कि देश की करेंसी पर लक्ष्मी व गणेश की तस्वीरें छापकर उसकी समस्याओं के हल के लिए उनका आशीर्वाद पाने की दिशा में बढ़ें, साफ संकेत दिए हैं कि वे भाजपा के हार्ड हिंदुत्व को कांग्रेस की तरह सॉफ्ट हिंदुत्व के नहीं, भाजपा से भी ज्यादा हार्ड हिंदुत्व के हथियार से काटना चाहते हैं.

इस क्रम में वे यह कहने में भी संकोच नहीं कर रहे कि लक्ष्मी व गणेश का आशीर्वाद देश की समस्याओं के समाधान का रामबाण इलाज सिद्ध होगा. अलबत्ता, यह नहीं बता रहे कि इस रामबाण के रहते वे मोदी सरकार के ‘मेक इन इंडिया’ के के समानांतर ‘मेक इंडिया नंबर वन’ अभियान क्यों चला रहे हैं? लक्ष्मी और गणेश के आशीर्वाद से ही काम क्यों नहीं चला ले रहे?

बहरहाल, यह पहली बार नहीं है जब केजरीवाल ने अपनी राजनीतिक सक्रियता के शुरुआती दिनों में प्रचारित धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील व परिवर्तनवादी नेता की अपनी छवि के विपरीत हिंदुत्व की ओर फिसलन के संकेत दिए हों और जताया हो कि वे देश के संविधान से ज्यादा मनुवादी विचारों के हिमायती हैं.

याद कीजिए, मोदी सरकार ने तीन साल पहले अपनी दूसरी पारी शुरू होते ही, जम्मू कश्मीर को विशेष अधिकार देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाकर उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांट दिया तो केजरीवाल ने किस तरह बढ़-चढ़कर उसका स्वागत किया था, जबकि नागरिकता कानून में भेदभावपूर्ण संशोधनों के विरुद्ध राजधानी दिल्ली के शाहीन बाग में हो रहे आंदोलन को लेकर अजीबोगरीब रवैया अपना लिया था.

लॉकडाउन में वे वर्णव्यवस्था की पोषक गीता का पाठ करते दिखे थे, जबकि न्यूज चैनलों पर वे प्रायः हनुमान चालीसा सुनाते दिखते हैं.
हद तो तब हो गई जब पिछले दिनों उन्होंने गुजरात में अपनी पार्टी की भगवान कृष्ण से तुलना कर डाली और दावा किया कि उसका जन्म भ्रष्टाचार के कंस को मारने के लिए हुआ है.

फिलहाल, दिल्ली में वे वरिष्ठ नागरिकों को राम मंदिर की मुफ्त सैर की योजना चला रहे हैं और गुजरात में सत्ता में आने पर वहां के बुर्जुगों के लिए भी वैसी ही योजना चलाने का वादा कर रहे हैं. इतना ही नहीं, पिछले साल दीपावली पर टीवी चैनलों पर प्रसारित उनकी भव्य पूजा का पंडाल अयोध्या के राम मंदिर की ही तर्ज पर बना हुआ था.

तिस पर उनके कई समर्थक दावा करते हैं कि वे भाजपा को हिंदुत्व के ही नहीं, राष्ट्रवाद के मोर्चे पर भी कड़ी टक्कर दे रहे हैं. दिल्ली के स्कूलों में देशभक्ति की कक्षाएं चलाने की योजना उनकी इसी टक्कर का हिस्सा है. शराब नीति समेत दिल्ली के दूसरे मामलों में वे भले ही भाजपा की मनमानियों व कदगुमानियों से टकराते रहते हों, जैसे ही उसने उनके एक मंत्री द्वारा हिंदू-देवी देवताओं के अपमान के मामले पर हड़बोंग मचाया, उन्होंने संबंधित मंत्री से इस्तीफा दिलवा दिया. गोयाकि मामला उनके द्वारा बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर की बहुचर्चित 22 प्रतिज्ञाएं दोहराने भर का था. लेकिन यह दोहराना केजरीवाल को इसलिए सहन नहीं हुआ क्योकि इससे उनकी हिंदुत्ववादी छवि खतरे में पड़ती थी.

जानकार उनके इन पैंतरों की कई रूपों में व्याख्या कर रहे हैं. इनमें पहली व्याख्या यह है कि उनकी पार्टी और भाजपा की राजनीति में अब केवल तौर-तरीकों व तकनीकों का फर्क रह गया है, जिससे पार्टी के उन वोटरों का मोहभंग लगातार नजदीक आ रहा है, जो यह उम्मीद पालकर अराजनीतिक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से निकली ‘पढ़े-लिखों’ की इस पार्टी के नजदीक आए थे कि वह अपनी घोषणा के अनुसार ‘राजनीति से पैसा और पैसे से राजनीति’ की परंपरागत राजनीतिक शैली का विचारधारा आधारित शुचितापूर्ण विकल्प बनेगी.

जानकारों के अनुसार, ये वोटर बहुत जागरूक हैं और आम आदमी पार्टी को भाजपा की बी टीम या फोटोकॉपी बनते देखते रहकर उससे चिपके नहीं रहने वाले. दूसरी ओर यह कहना बहुत मुश्किल है कि ‘आप’ ने ज्यादा कट्टर हिंदुत्व का खोल ओढ़ा नहीं कि भाजपा के हिंदुत्व समर्थक वोटर सम्मोहित होकर उसकी तरफ खिंच आएंगे!

किसे नहीं मालूम कि भाजपा को यह प्रचारित कर अपने समर्थकों को अपने साथ एकजुट रखने में महारत हासिल है कि उसके प्रतिद्वंद्वी उसके हिंदुत्व के एजेंडा के दबाव में ‘हिंदू’ हो रहे हैं और उनका हिंदुत्व कतई विश्वसनीय नहीं है.

गौरतलब है कि केजरीवाल के नोट-राग छेड़ने के बाद थोड़ी देर तक वह भले ही असहज रही, जल्दी ही वह नोटों पर शिवाजी और विनायक दामोदर सावरकर वगैरह की तस्वीरें छापने की मांग करने वालों को आगे कर उन्हें अपने ट्रैप में ले लिया. इसका उद्देश्य यह जताना था कि उसके खेमे में केजरीवाल ज्यादा हार्ड हिंदुत्व में हिस्सेदारी का दावा करने वालों का भी टोंटा नहीं है.

दूसरी ओर कई जानकार कह रहे हैं कि केजरीवाल के नोट-राग ने जरूरी मुद्दों व जवाबदेहियों से देशवासियों का ध्यान भटकाकर लाभ उठाने के काम में भाजपा की बड़ी मदद की है. ये जानकार सही सिद्ध हुए तो केजरीवाल की पार्टी की हालत ‘माया मिली न राम’ वाली भी हो सकती है, लेकिन गलत सिद्ध हुए तो देश को उनकी पार्टी से कहीं ज्यादा बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है.

क्योंकि तब देश की राजनीति में मतदाताओं को धर्म के नाम पर बरगलाने को और आसान मान लिया जाएगा और शायद ही कोई यह कहकर उन्हें सचेत करने का जोखिम उठाए कि करेंसी पर देवी-देवताओं की तस्वीरें लगाने से ही देश संपन्न हुआ करते या उनमें सुख-समृद्धि आती तो दुनिया के तमाम देश ऐसा ही करने लगते और कौन जाने विश्व बैंक का कार्यालय भी किसी देवी या देवता के मंदिर में ही होता.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)





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